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रामचर्चा--मुंशी प्रेमचंद


लंका में हनुमान

रासकुमारी से लंका तक तैरकर जाना सरल काम न था। इस पर दरियाई जानवरों से भी सामना करना पड़ा। किन्तु वीर हनुमान ने हिम्मत न हारी। संध्या होतेहोते वह उस पार जा पहुंचे। देखा कि लंका का नगर एक पहाड़ की चोटी पर बसा हुआ है। उसके महल आसमान से बातें कर रहे हैं। सड़कें चौड़ी और साफ हैं। उन पर तरहतरह की सवारियां दौड़ रही हैं। पगपग पर सज्जित सिपाही खड़े पहरा दे रहे हैं। जिधर देखिये, हीरेजवाहर के ढेर लगे हैं। शहर में एक भी गरीब आदमी नहीं दिखायी देता। किसीकिसी महल के कलश सोने के हैं, दीवारों पर ऐसी सुन्दर चित्रकारी की हुई है कि मालूम होता है कि सोने की हैं। ऐसा जनपूर्ण और श्रीपूर्ण नगर देखकर हनुमार चकरा गये। यहां सीताजी का पता लगाना लोहे के चने चबाना था। यह तो अब मालूम ही था कि सीता रावण के महल में होंगी। किन्तु महल में परवेश कैसे हो? मुख्य द्वार पर संतरियों का पहरा था। किसी से पूछते तो तुरन्त लोगों को उन पर सन्देह हो जाता। पकड़ लिये जाते। सोचने लगे, राजपरासाद के अन्दर कैसे घुसूं? एकाएक उन्हें एक बड़ा छतनार वृक्ष दिखायी दिया, जिसकी शाखाएं महल के अन्दर झुकी हुई थीं। हनुमान परसन्नता से उछल पड़़े। पहाड़ों में तो वे पैदा हुए थे। बचपन ही से पेड़ों पर च़ना, उचकना, कूदना सीखा था। इतनी फुरती से पेड़ों पर च़ते थे कि बन्दर भी देखकर शरमा जाय। पहरेदारों की आंख बचाकर तुरन्त उस पेड़ पर च़ गये और पत्तियों में छिपे बैठे रहे। जब आधी रात हो गयी और चारों ओर सन्नाटा छा गया, रावण भी अपने महल में आराम करने चला गया तो वह धीरे से एक डाल पकड़कर महल के अन्दर कूद पड़े।

महल के अन्दर चमकदमक देखकर हनुमान की आंखों में चकाचौंध आ गयी। स्फटिक की पारदर्शी भूमि थी। उस पर फानूस की किरण पड़ती थी, तो वह दम्दम करने लगती थी। हनुमान ने दबेपांव महलों में घूमना शुरू किया। रावण को देखा, एक सोने के पलंग पर पड़ा सो रहा है। उसके कमरे से मिले हुए मन्दोदरी और दूसरी रानियों के कमरे हैं। मन्दोदरी का सौंदर्य देखकर हनुमान को सन्देह हुआ कि कहीं यही सीताजी न हों। किन्तु विचार आया, सीताजी इस परकार इत्र और जवाहर से लदी हुई भला मीठी नींद के मज़े ले सकती हैं? ऐसा संभव नहीं। यह सीताजी नहीं हो सकतीं। परत्येक महल में उन्होंने सुन्दर रानियों को मज़े से सोते पाया। कोई कोना ऐसा न बचा, जिसे उन्होंने न देखा हो। पर सीताजी का कहीं निशान नहीं। वह रंजोग़म से घुली हुई सीता कहीं दिखायी न दीं। हनुमान को संदेह हुआ कि कहीं रावण ने सीताजी को मार तो नहीं डाला! जीवित होतीं, तो कहां जातीं ?
हनुमान सारी रात असमंजस में पड़े रहे, जब सवेरा होने लगा और कौए बोलने लगे, तो वह उस पेड़ की डाल से बाहर निकल आये। मगर अब उन्हें किसी ऐसी जगह की ज़रूरत थी, जहां वह दिन भर छिप सकें। कल जब वह वहां आये तो शाम हो गयी थी। अंधेरे में किसी ने उन्हें देखा नहीं। मगर सुबह को उनका लिवास और रूपरंग देखकर निश्चय ही लोग भड़कते और उन्हें पकड़ लेते। इसलिए हनुमान किसी ऐसी जगह की तलाश करने लगे जहां वह छिपकर बैठ सकें। कल से कुछ खाया न था। भूख भी लगी हुई थी। बाग़ के सिवा और मु़त के फल कहां मिलते। यही सोचते चले जाते थे कि कुछ दूर पर एक घना बाग़ दिखायी दिया। अशोक के बड़ेबड़े पेड़ हरीहरी सुन्दर पत्तियों से लदे खड़े थे। हनुमान ने इसी बाग़ में भूख मिटाने और दिन काटने का निश्चय किया। बाग़ में पहुंचते ही एक पेड़ पर च़कर फल खाने लगे।
एकाएक कई स्त्रियों की आवाजें सुनायी देने लगीं। हनुमान ने इधर निगाह दौड़ायी तो देखा कि परम सुन्दरी स्त्री मैलेकुचैले कपड़े पहने, सिर के बाल खोले, उदास बैठी भूमि की ओर ताक रही है और कई राक्षस स्त्रियां उसके समीप बैठी हुई उसे समझा रही हैं। हनुमान उस सुन्दरी को देखकर समझ गये कि यही सीताजी हैं। उनका पीला चेहरा, आंसुओं से भीगी हुई आंखें और चिन्तित मुख देखकर विश्वास हो गया। उनके जी में आया कि चलकर इस देवी के चरणों पर सिर रख दूं और सारा हाल कह सुनाऊं। वह दरख्त से उतरना ही चाहते थे कि रावण को बाग़ में आते देखकर रुक गये। रावण घमण्ड से अकड़ता हुआ सीता के पास जाकर बोला—सीता, देखो, कैसा सुहावना समय है, फूलों की सुगन्ध से मस्त होकर हवा झूम रही है! चिड़ियां गा रही हैं, फूलों पर भौंरे मंडरा रहे हैं। किन्तु तुम आज भी उसी परकार उदास और दुःखित बैठी हुई हो। तुम्हारे लिए जो मैंने बहुमूल्य जोड़े और आभूषण भेजे थे, उनकी ओर तुमने आंख उठाकर भी नहीं देखा। न सिर में तेल डाला, न इत्र मला। इसका क्या कारण है ? क्या अब भी तुम्हें मेरी दशा पर दया न आयी।
सीताजी ने घृणा की दृष्टि से उसकी ओर देखकर कहा—अत्याचारी राक्षस, क्यों मेरे घाव पर नमक छिड़क रहा है? मैं तुझसे हजार बार कह चुकी कि जब तक मेरी जान रहेगी, अपने पति के प्यारे चरणों का ध्यान करती रहूंगी। मेरे जीतेजी तेरे अपवित्र विचार कभी पूरे न होंगे। मैं तुझसे अब भी कहती हूं कि यदि अपनी कुशल चाहता है तो मुझे रामचन्द्र के पास पहुंचा दे, और उनसे अपनी भूलों की क्षमा मांग ले। अन्यथा जिस समय उनकी सेना आ जायेगी, तुझे भागने की कहीं जगह न मिलेगी। उनके क्रोध की ज्वाला तुझे और तेरे सारे परिवार को जलाकर राख कर देगी। और खूब कान खोलकर सुन ले, कि वह अब यहां आया ही चाहते हैं।
रावण यह बातें सुनकर लाल हो गया और बोला—बस, जबान संभाल, मूर्ख स्त्री! मुझे मालूम हो गया कि तेरे साथ नरमी से काम न चलेगा। अगर तू एक निर्बल स्त्रीहोकर जिद कर सकती है, तो मैं लंका का महाराजा होकर क्या जिद नहीं कर सकता? जिसपुरुष के बल पर तुझे इतना अभिमान है, उसे मैं यों मसल डालूंगा, जैसे कोई कीड़े को मसलता है। तू मुझे सख्ती करने पर विवश कर रही है; तो मैं भी सख्ती करुंगा। बस, आज से एक मास का अवकाश तुझे और देता हूं। अगर उस वक्त भी तेरी आंख न खुली तो फिर या तो तू रावण की रानी होगी या तो तेरी लाश चील और कौवे नोचनोचकर खायेंगे।
रावण चला गया, तो राक्षस स्त्रियों ने सीता जी को समझाना आरम्भ किया। तुम बड़ी नादान हो सीता, इतना बड़ा राजा तुम्हारी इतनी खुशामद करता है, फिर भी तुम कान नहीं देतीं। अगर वह जबरदस्ती करना चाहे तो आज ही तुम्हें रानी बना ले। मगर कितना नेक है कि तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करना चाहता। उसके साथ तुम्हारी बेपरवाही उचित नहीं। व्यर्थ रामचन्द्र के पीछे जान दे रही हो। लंका की रानी बनकर जीवन के सुख उठाओ। राम को भूल जाओ। वह अब यहां नहीं आ सकते और आ जायं तो राजा रावण का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।
सीता जी ने क्रोधित होकर कहा—लाज नहीं आती? ऐसे पापी को जो दूसरे की स्त्रियों को बलात उठा लाता है, तुम नेक और धमार्त्मा कहती हो? उससे बड़ा पापी तो संसार में न होगा !
हनुमान ऊपर बैठे हुए इन स्त्रियों की बातें सुन रहे थे। जब वह सब वहां से चली गयीं और सीताजी अकेली रह गयीं तो हनुमानजी ने ऊपर से रामचन्द्र की अंगूठी उनके सामने गिरा दी। सीताजी ने अंगूठी उठाकर देखी तो रामचन्द्र की थी। शोक और आश्चर्य से उनका कलेजा धड़कने लगा। शोक इस बात का हुआ कि कहीं रावण ने रामचन्द्र को मरवा न डाला हो। आश्चर्य इस बात का था कि रामचन्द्र की अंगूठी यहां कैसे आयी। वह अंगूठी को हाथ में लिये इसी सोच में बैठी हुई थीं कि हनुमान पेड़ से उतरकर उनके सामने आये और उनके चरणों पर सिर झुका दिया।
सीता जी ने और भी आश्चर्य में आकर पूछा—तुम कौन हो? क्या यह अंगूठी तुम्हीं ने गिरायी है ? तुम्हारी सूरत से मालूम होता है कि तुम सज्जन और वीर हो। क्या बतला सकते हो कि तुम्हें अंगूठी कहां मिली ?
हनुमान ने हाथ जोड़कर कहा—माता जी! मैं श्री रामचन्द्र जी के पास से आ रहाहूं। यह अंगूठी उन्हीं ने मुझे दी थी। मैं आपको देखकर समझ गया कि आप ही जानकी जी हैं। आपकी खोज में सैकड़ों सिपाही छूटे हुए हैं। मेरा सौभाग्य है कि आपके दर्शन हुए।
सीताजी का पीला चेहरा खिल गया। बोलीं—क्या सचमुच तुम मेरे स्वामीजी के पास से आ रहे हो? अभी तक वे मेरी याद कर रहे हैं ?
हनुमान—आपकी याद उन्हें सदैव सताया करती है। सोतेजागते आप ही के नाम की रट लगाया करते हैं। आपका पता अब तक न था। इस कारण से आपको छुड़ा न सकते थे। अब ज्योंही मैं पहुंचकर उन्हें आपका समाचार दूंगा, वह तुरन्त लंका पर आक्रमण करने की तैयारी करेंगे।
सीता जी ने चिंतित होकर पूछा—उनके पास इतनी बड़ी सेना है, जो रावण के बल का सामना कर सके ?
हनुमान ने उत्साह के साथ कहा—उनके पास जो सेना है, उसका एकएक सैनिक एकएक सेना का वध कर सकता है! मैं एक तुच्छ सिपाही हूं; पर मैं दिखा दूंगा कि लंका की समस्त सेना किस परकार मुझसे हार मान लेती है।
सीता जी—रामचन्द्र को यह सेना कहां मिल गयी। मुझसे विस्तृत वर्णन करो, तब मुझे विश्वास आये।
हनुमान—वह सेना राजा सुगरीव की है, जो रामचन्द्र के मित्र और सेवक हैं। रामचन्द्र ने सुगरीव के भाई बालि को मारकर किष्किन्धा का राज्य सुगरीव को दिला दिया है। इसीलिए सुगरीव उन्हें अपना उपकारक समझते हैं। उन्होंने आपका पता लगाकर आपको छुड़ाने में रामचन्द्र की सहायता करने का परण कर लिया है। अब आपकी विपत्तियां बहुत शीघर अन्त हो जायंगी।
सीता जी ने रोकर कहा—हनुमान ! आज का दिन बड़ा शुभ है कि मुझे अपने स्वामी का समाचार मिला। तुमने यहां की सारी दशा देखी है। स्वामी से कहना, सीता की दशा बहुत दुःखद है; यदि आप उसे शीघर न छुड़ायेंगे तो वह जीवित न रहेंगी। अब तक केवल इसी आशा पर जीवित हैं, किन्तु दिनपरतिदिन निराशा से उसका हृदय निर्बल होता जा रहा है।
हनुमान ने सीता जी को बहुत आश्वासन दिया और चलने को तैयार हुए; किन्तु उसी समय विचार आया कि जिस परकार सीता जी के विश्वास के लिए रामचन्द्र की अंगूठी लाया था उसी परकार रामचन्द्र के विश्वास के लिए सीता जी की भी कोई निशानी ले चलना चाहिए! बोले—माता! यदि आप उचित समझें तो अपनी कोई निशानी दीजिए जिससे रामचन्द्र को विश्वास आ जाये कि मैंने आपके दर्शन पाये हैं।
सीता जी ने अपने सिर की वेणी उतारकर दे दी। हनुमान ने उसे कमर में बांध लिया और सीता जी को परणाम करके विदा हुए।

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